International Minjar Fair : अंतरराष्ट्रीय चंबा मिंजर मेले के बारे में जाने

वैसे तो शिव भूमि चंबा में अनके मेले एवं त्योहरार मनाए जाते है। मगर इन सब में मिंजर मेले (International Minjar Fair) का एक विशिष्ट स्थान है। अंतरराष्ट्रीय ख्याति प्राप्त मिंजर मेले की प्रसिद्धि न केवल हिमाचल में बल्कि देश के अन्य भागों में है।

एक सप्ताह तक चलने वाला यह मेला श्रावण महीने के दूसरे रविवार को शुरू होकर सप्ताह भर चलने के बाद तीसरे रविवार को मिंजर रावी नदी में प्रवाहित कर मेले को समाप्त हो जाता है। मेले की शुरुआत रघुवीर और लक्ष्मी नारायण को मिंजर (Minjar) भेंट कर किया जाता है।

गेंहू, जौ, धान की बालियां ही हैं मिंज

गेंहू,धान,मक्की और जौ की बालियों को ही स्थानीय लोगों में मिंजर कहा जाता है। मौजूदा समय में जरी या गोटे से बनाई गई बालियां मिंजर या मंजरी कमीज के बटन पर लगाई जाती हैं, जो एक हफ्ते के बाद उतार कर रावी में विसर्जित या प्रवाहित कर दी जाती हैं।

शाहजहां के समय में हुआ शुरू – International Minjar Fair

शाहजहां के शासन काल में सूर्यवंशी राजा पृथ्वी सिंह रघुवीर जी को यहां लाए। रघुवीर जी के साथ शाहजहां ने मिर्जा साफी बेग राजदूत के रूप में भेजा और साथ छत्र और चिन्ह भेजे। मिर्जा साहब जरी गोटे के काम में निपुण थे।

जरी को मिंजर (Minjar) बनाकर उन्होंने रघुवीर जी, लक्ष्मी नारायण और राजा पृथ्वी सिंह को भेंट की थी। तब से लेकर मिर्जा साफी बेग का परिवार ही रघुनाथ जी और लक्ष्मी नारायण को मिंजर भेंट करता चला आ रहा है। यह मेला सदियों पहले चंबा (chamba) और भारत के धर्म निरपेक्ष स्वरूप को उजागर करता है।

ऋतु गीत-संगीत, कंजड़ी मल्हार गाने का रिवाज

रियासत काल में इस मेले के दौरान चंबावासियों के लिए राजा मिंजर (Minjar) ऋतु फल और मिठाई भेंट की जाती थीं। आजकल यह काम जिला प्रशासन करता है। राजा की भेंट मिंजर (International Minjar Fair) परिवार के मुखिया पुरुष को भेंट की जाती थी। रियासत काल में घर-घर में इस दौरान ऋतु गीत-संगीत, कंजड़ी मल्हार गाए जाते थे। हालांकि, अब यह रस्म मेले में स्थानीय कलाकार पूरी करते हैं।

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पुरानी कहावत के अनुसार, मिंजर मेला रियासत के राजा की कांगड़ा के राजा पर जीत दर्ज करने की खुशी में मनाया जाता है। रियासत के लोगोंं ने जीत के बाद मक्की, धान, जौ की फसलें भेंट कर राजा का स्वागत किया था।

मिंजर मेले का मुख्य जुलूस राजमहल अखंड चंडी से चौगान के रास्ते रावी नदी के तट पर पहुंचता है। यहां पर मिंजर लाल कपड़े में नारियल लपेट कर एक रुपये फल और मिठाई आदि बांटकर उसे विसर्जित करते हैं। इसके बाद वहीं पर कंजड़ी मल्हार गाया जाता है।

जीवित भैंसा भी होता था प्रवाहित

1943 तक मिंजर के साथ एक जीवित भैंसा भी प्रवाहित किया जाता था। मान्यता थी कि यदि भैंसा नदी के दूसरे छोर तक पहुंच जाता था तो राज्य पर किसी तरह संकट नहीं आएगा। वहीं भैंसे के वापस आने पर घोर विपत्ति का संकेत था। चंबा के विभाजन के समय पाकिस्तान गए लोग भी मिंजर के दिन इस उत्सव को मनाते हैं। वे भी रावी के तट पर मिंजर (Minjar) विसर्जित कर कंजड़ी मल्हार गाते हैं। 1948 से मिंजर के जुलूस की अगुवाई रघुवीर जी करते हैं।

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